छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा चर्च प्रभु ईसा मसीह के प्रति प्रबल आस्था का गढ़ छत्तीसगढ़ भी है। यहां 3400 वर्गफुट में फैला एशिया महाद्वीप का दूसरा सबसे बड़ा चर्च और भारत का दूसरा सबसे बड़ा चर्च कुनकुरी में स्थित है। उल्लेखनीय है कि एशिया महाद्वीप का सबसे बड़ा चर्च सुमी बैप्टिस्ट नागालैंड में है। राष्ट्रीय राजमार्ग 78 पर जशपुर जिला मुख्यालय से रायगढ़ जाते हुए 45 किलोमीटर दूर बसा गांव है, कुनकुरी। 19वीं सदी में इस क्षेत्र में ईसाई मिशनरी सक्रिय रही। 1951 की जनगणना के अनुसार इस अंचल में ईसाई धर्मावलंबियों की संख्या 13,873 थी जो 1961 में 90,359 हो गई थी। उस समय यहां रोमन कैथोलिक और इवैंजेलिकल लुथेरेन मिशन की गतिविधियां रांची केंद्र से संचालित थीं। वैसे इस अंचल का सबसे पुराना मिशन गिरनाबहार का क्रिस्तोपाल आश्रम 1921 में और दिसंबर 1951 में रायगढ़ अंबिकापुर कैथोलिक डायोसीज कुनकुरी की स्थापना हुई।
इस चर्च को महागिरजाघर कैथेड्रल के नाम से ख्याति मिली हुई है। छत्तीसगढ़ का यह महागिरजाघर श्वेत संगमरमर से बना है। दस हजार श्रद्धालुओं के बैठने की क्षमतायुक्त इस गोलाकार पवित्र भवन को रोजरी की महारानी चर्च के नाम से जाना जाता है। इस चर्च की नींव 1962 में बिशप स्टानिसलास तिग्गा ने रखी थी। बेल्जियम के आर्किटेक्ट जे.एन.करसी ने इसके नक्शा को बनाया था। एक ही बीम पर बने इस पवित्र भवन को अद्भुत नक्शा के अनुरूप आकार देने में लगभग सत्रह साल लग गए। उंचाई से देखने पर ऐसा दिखता है, मानो गाॅड दोनों हाथ फैलाए आमंत्रित कर रहा हो। शुरूवाती काम के बाद 1969 तक निर्माण स्थगित रखा गया, क्योंकि उपयोग में लाए जा रहे स्थानीय सतपुड़िया और धूमाडांड पहाड़ के पत्थर में यूरेनियम होना की शंका बतायी गयी। हालांकि बाद में यह शंका निर्मूल साबित हुई। 1969 में पुनः कार्य आरंभ हुआ। 1971 में जब चर्च का भीतरी भाग पूरा हो गया, तब यहां नियमित रविवारीय पूजा-प्रार्थना होने लगी। अर्थाभाव के कारण 1971 से 1978 तक दूसरी बार काम रूक गया। 27 अक्टूबर 1979 को इसे श्रद्धालुओं के लिए लोकार्पित किया गया। कैथोलिक समुदाय में सात अंक को अच्छा माना गया है। इसलिए इस गिरजाघर में सात छत, सात खूबसूरत दरवाजे भी बनाए गए हैं। यहां बिशप स्टानिसलास तिग्गा के अलावा तीन अन्य बिशप दफनाए गए हैं।
छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म
अमेरिका की जर्मन एवं एवेजिलिकल सोसायटी की ओर से रेवरेन्ट लोर बंबई में उतरे और वहां से लगभग 800 किलोमीटर की यात्रा कर नागपुर पहुंचे। वहां से 182 मील की यात्रा बैलगाड़ी से कर 31 मई 1868 को रायपुर पहुंचे। लोर को रायपुर से 38 मील दूर दरचुरा (वर्तमान विश्रामपुर) में बसने की सलाह अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर फनेड वाल मेजलो ने दी। लोर को सोलह सौ एकड़ की जमीन कम मूल्य पर दी गई। यहीं छत्तीसगढ़ में सर्वप्रथम चर्च की स्थापना की गई। वह छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म का प्रचार करने लगे। उनके कार्यों को देखते हुए अंग्रेजी सरकार ने लोर को कैसर-ए-हिन्द की उपाधि और तमगा दिया। लोर ने प्रत्येक गांव में एक व्यक्ति जो ईसाई बन चुका होता था, को मासिक वेतन पर प्रचारक नियुक्त किया। ईसाई धर्म का प्रचार करने के अलावा इनका मुख्य कार्य गांव की गतिविधि को मुख्यालय तक पहुंचाना भी था। कालांतर में बस्तर में कैथोडिस्ट मिशन का प्रचार प्रारंभ हुआ। इसके प्रमुख सी.वी.वार्ड 6 मार्च 1892 रविवार के दिन अपनी पत्नी नर्सिया, एक उपदेशक रमया और दो नौकरों के साथ बस्तर की राजधानी जगदलपुर पहुंचे। कालांतर में डॉ.वस्टसरोन, मि.एंड मिसेज अमरलवती, ब्लैकमोर, जार्ज किंग गिल्डर तथा डब्ल्यू.टी.वार्ड उनके सहयोगी बने। छत्तीसगढ़ के कमिश्रर फ्रेशर ने वार्ड को सहयोग दिया। बस्तर राज्य के दीवान रामकृष्ण राव ने उनका जगदलपुर में स्वागत किया और यातायात के लिए घोड़े दिए। गंगालूर, कोंटा, जगदलपुर, कोंडागांव, अंतागढ़ कुल पांच क्षेत्रों में मिशनरी केंद्र बनाए गए। 24 मई 1893 को जगदलपुर में डिस्पेंसरी की स्थापना की गई। डॉ.बस्टस टोन ने शिवचरण नायक के लंगड़ेपन का उपचार किया। आगे चलकर इसी शिवचरण ने ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1898 के अकाल में बस्तर में ईसाई मिशनरियों ने खूब समाज सेवा का कार्य किया। जगदलपुर में अनाथालय, चंद्रखुरी रायपुर में कुष्ठ मुक्ति केंद्र मिशनरियों के द्वारा स्थापित किए गए। विश्रामपुर, बैतलपुर, जगदीशपुर (बसना), रायपुर, रायगढ़, बिलासपुर, जगदलपुर को केंद्र बनाकर ईसाई मिशनरियों ने संपूर्ण छत्तीसगढ़ में शिक्षा व स्वास्थ्य संबंधी व्यवस्था बनाकर अपने धर्म का प्रचार किया।