Monday, July 28, 2025
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    द्वितीय विश्व युद्ध का धमतरी कनेक्शन, हिटलर को हराने में रही धमतरी की महत्वूपर्ण भूमिका

    मां विंध्यवासिनी देवी के शहर धमतरी यूं तो संस्कारधानी शांतिप्रिय शहर है। लेकिन इसी धमतरी शहर का द्वितीय विश्व युद्ध से ऐतिहासिक संबंध रहा है। जब हिटलर की फौज ब्रिटिश से जंग लड़ रही थी, उस समय साल 1937 से 1945 तक युद्धपोत और रेल स्लीपर बनाने के लिए धमतरी के जंगलों से साल और सागौन की लकड़ियों की सप्लाई की गई थी। आज भी उस दौर की गवाह भाप से चलने वाली साॅ मशीन धमतरी वन मंडल कार्यालय में सहेज कर रखी हुई है। धमतरी के जंगलों से साल और सागौन की लकड़ी की सप्लाई का यूरोप तक चैन बना, तब जाकर अंग्रेजों ने हिटलर को धूल चटाई थी। आज भी यहां की पुरानी मशीनें इस बात की गवाही दे रही हैं। छत्तीसगढ़ के धमतरी का दूसरे विश्व युद्ध से लकड़ियों के माध्यम से रिश्ता रहा है। हिटलर की सेना के खिलाफ ब्रिटिश फौज ने जिन युद्धपोतों और रेल लाईन का इस्तेमाल किया, उनमें जो साल और सागौन की लकड़ियां इस्तेमाल हुई, वो धमतरी के जंगलों से भेजी गई थी। उस समय धमतरी में बिजली नहीं थी इसलिए साल-सागौन की बल्लीयों को चीर कर स्लीपर बनाने स्टीम सा इंजनों का इस्तेमाल होता था। जो भाप के रेल इंजन के सिद्धांत पर कार्य करता था। फर्क ये था कि इनसे रेल न चला कर इनसे आरा मील चलाई जाती थी।

    अंग्रेजों ने धमतरी को ही क्यों चुना. . .

    प्रमुख सवाल यह उठता है कि देश के कई दूसरे हिस्सों में भरपूर जंगलों की उपस्थिति के बावजूद अंग्रेजों ने धमतरी के जंगलों को क्यों चुना। इसका प्रमुख कारण था, धमतरी के जंगलों में मिलने वाले साल और सागौन की क्वालिटी और क्वांटिटी। यहां इतने साल-सागौन के वन थे कि इसका लंबे समय तक दोहन किया जा सकता था। इसी बात को ध्यान में रखकर अंग्रेजों ने धमतरी शहर के लिए लंबी कार्ययोजना बनाई। इसका गवाह धमतरी शहर का पुराना मेनोनाईट चर्च, मेनोनाईट स्कूल, माडमसिल्ली बांध, रूद्री बैराज जैसे कई ऐतिहासिक धरोहर हैं। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने धमतरी में ओडिशा की सीमा तक लगभग 200 किलोमीटर लंबी रेल लाईन बिछाई ताकि लकड़ियों को पूरे देश में या कहे तो पूरे एशिया में सप्लाई नेटवर्क से जोड़ा जा सके। स्वाभाविक सी बात है जब अंग्रेज अफसर और कर्मचारी इस क्षेत्र में सक्रिय हुए तो उन्हें आवास की भी व्यवस्था करनी पड़ी। इसलिए अंग्रेज अफसरों के ठहरने के लिए माडमसिल्ली, खल्लारी, बहीगांव, दुगली, बनरीद और धमतरी में रेस्ट हाउस बनाए गए। अधिकांश रेस्ट हाउस आज भी अच्छी अवस्था में हैं। लकड़ी चीरने के लिए सांकरा और दुगली में स्टीम सा मशीन लगाई गई। प्रोडक्शन सिस्टम और सप्लाई नेटवर्क के कारण धमतरी एशिया का सबसे बड़ा फारेस्ट प्रोडक्शन सेंटर बन गया।

    उसी दौर में 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। तब अंग्रेजों ने अपने इस प्रोडक्शन और सप्लाई सिस्टम का इस्तेमाल जर्मनी की हिटलर फौज के खिलाफ करने की योजना बनाई। फिर यहां से लकड़ियां चीर कर रेल के जरिए विशाखापट्टनम बंदरगाह भेजा जाता था और वहां से पानी जहाज से ये लकड़ियां यूरोप भेजी जाती थी। वहां सागौन की लकड़ियों से युद्धपोत और साल की लकड़ी से रेलवे स्लीपर बनाए जाते थे।

    आजादी के कई सालों बाद दुगली और सांकरा के जंगलों से इन स्टीम साॅ मशीन को लाकर वनमंडल कार्यालय में पेंट कर रखा गया। लेकिन आज भी इसमें लगे जंग अपनी ऐतिहासिकता को समेटे हुए हैं, मानो कह रहे हों मुझे खरोचकर तो देखिए. . . .

    ( शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक छत्तीसगढ़ कही अनकही का अंश ) –  डॉ. गीतेश अमरोहित

     

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