Tuesday, July 29, 2025
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    भारत में प्राइवेट विश्वविद्यालयों की चुनौतियाँ: छत्तीसगढ़ एक उदाहरण

    – डॉ. संजय कुमार यादव, सहायक प्रोफेसर (प्रबंधन एवं मनोवैज्ञानिक-शैक्षिक विशेषज्ञ)

    भारत में उच्च शिक्षा प्रणाली ने पिछले दो दशकों में जबरदस्त विस्तार देखा है। इस विकास में प्राइवेट विश्वविद्यालयों की भूमिका उल्लेखनीय रही है। लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि देशभर में कई निजी विश्वविद्यालय केवल व्यावसायिक दृष्टिकोण से संचालित हो रहे हैं, जहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गंभीर कमी देखी जाती है। छत्तीसगढ़ भी इस समस्या से अछूता नहीं है।

    छत्तीसगढ़ में प्राइवेट विश्वविद्यालयों की संख्या में वृद्धि तो हुई है, लेकिन उनमें योग्य शिक्षक, शोध की संस्कृति, आधुनिक प्रयोगशालाएं और बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव आम समस्या बन गई है। अनेक संस्थानों में न तो नियमित कक्षाएं संचालित होती हैं और न ही छात्रों के लिए व्यावहारिक प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था होती है और उपस्थिति (अटेंडेंस) के नाम पर खानापूर्ति की जाती है।

    भारत के अन्य राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ में भी निजी विश्वविद्यालय छात्रों से भारी-भरकम फीस वसूलते हैं, परंतु उसके बदले गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे पाते। इससे शिक्षा केवल एक विशेष वर्ग तक सीमित हो रही है, और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा एक सपना बनती जा रही है।

    इसके साथ ही, कुछ विश्वविद्यालय ऐसे कोर्सेज में प्रवेश लेते हैं जो व्यापार की दुनिया के लिए आकर्षक होते हैं, लेकिन उन कोर्सेज में योग्य और कुशल शिक्षक बिल्कुल नहीं होते। और विशिष्ट ज्ञान और कौशल की कमी के कारण, इन विशेष कोर्सेज के छात्र व्यावसायिक दुनिया के लिए पूरी तरह से उपयुक्त नहीं होते। यानि, उद्योग जगत की जरूरतों से मेल नहीं खाते। इससे छात्रों को रोजगार के अवसर प्राप्त करने में कठिनाई होती है, और उनका शैक्षणिक निवेश व्यर्थ हो जाता है।

    भारत सरकार और राज्य सरकारों ने निजी उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए UGC, AICTE और NAAC जैसे नियामक निकाय बनाए हैं, लेकिन इनकी निगरानी क्षमता सीमित है। विशेषकर ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में चल रहे निजी विश्वविद्यालयों में निरीक्षण की प्रक्रियाएं प्रायः केवल औपचारिकता बनकर रह जाती हैं।यह बहुत ही दुखद है कि वे पीएच.डी. की डिग्री ऐसे उम्मीदवारों को भी बांट रहे हैं जिनका स्तर अत्यंत निम्न है।

    कुछ विश्वविद्यालयों में इंजीनियरिंग और एम.एससी. (भौतिकी, रसायन, जीवविज्ञान) जैसे पाठ्यक्रम तो संचालित किए जा रहे हैं, लेकिन या तो प्रयोगशालाएं हैं ही नहीं, और यदि हैं भी, तो वे पूरी तरह उपकरणों से खाली हैं। ये प्रयोगशालाएं बिना किसी लैब असिस्टेंट या सहायक प्रोफेसर के चल रही हैं, और जिन असिस्टेंट प्रोफेसरों की तनख्वाह केवल 20 से 40 हजार रुपये के बीच होती है। यह उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के साथ सीधा समझौता है।

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