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पद्मश्री पुरस्कारों की सूची में छत्तीसगढ़ के गढ़बेंगाल, नारायणपुर जिला के गोंड मुरिया जनजातीय के जानेमाने कलाकार 68 वर्षीय, पंडीराम मंडावी का नाम शामिल किया गया है। यह प्रतिष्ठित सम्मान उन्हें पारंपरिक वाद्ययंत्र निर्माण और लकड़ी के शिल्पकला के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाएगा। उनकी विषेष पहचान बांस की बस्तर बांसुरी, जिसे “सुलुर” कहा जाता है, के निर्माण में है। यह एक खास बांस की बनी पवन बांसुरी है। इस बांसुरी को हवा में हिलाने से ध्वनि उत्पन्न होती है, जबकि सामान्य बांसुरी में हवा फूंकने की आवश्यकता होती है। यह 24 से 36 इंच लंबी होती है। इसमें तीन वाॅशर होते हैं, जो इसके सिरे को आंशिक रूप से ढकते हैं। इस बांसुरी को एक हाथ में लेकर तेजी से घुमाने पर मधुर ध्वनियां निकलती है। एकदम सीधा पहाड़ी बांस, बांसुरी बनाने के लिए एकदम उपयुक्त होता है। इसमें एक छेद होना चाहिए, जो दोनों सिरों तक फैला हो। सामान्यतः एक बांस में दो या तीन बांसुरी बन जाता है। एक छोर का एक हिस्सा बंद होता है। प्राचीन तांबे के पीसा सिक्के बंद करने के लिए एकदम सही वाॅशर थे। आजकल एक साथ तीन तांबे के वाॅशर इस्तेमाल करते हैं, जिससे एक चौथाई इंच व्यास का छेद रह जाता है।
रात के अंधेरे में जब ग्रामीण गुजर रहा होता है, तो जानवरों को डराने के लिए लगातार बांसुरी को घुमाते रहते हैं। वहीं बकरियों या गायों को एक समूह में इकट्ठा करने के लिए भी इस बांसुरी की ध्वनि का इस्तेमाल करते हैं।
सुलुर बांसुरी की सतह पर सुंदरता बढ़ाने के लिए मछली की आकृति, ज्यामितीय रेखाएं या त्रिकोण आकृति अंकित कर देते हैं। 18वें जी-20 शिखर सम्मेलन में इस सुलुर बांसुरी को प्रदर्शित किया गया था। बस्तर क्षेत्र में इसकी कीमत सामान्यतः सौ रूपए है। लेकिन इसकी डिमांड विदेशों में भी है। बाहर में इसकी कीमत एक हजार रूपए से दो हजार रूपए के बीच है। इटली के मिलान शहर में प्रायः हर घर में यह बांसुरी बैठक कक्ष की शोभा बढ़ाने के लिए रखा जाता है।